Sant pipaji: Difference between revisions
m sant pipaji |
Undid revision 739394236 by JacksonPershing (talk) |
||
Line 1: | Line 1: | ||
{{AfD}} |
|||
'''संत पीपाजी''' |
'''संत पीपाजी''' |
||
पीपाजी महाराज का जन्म गढ़ गागरोन जिला झालावाड में विक्रम संवत १३८० शेत्र शुक्ल पूर्णिमा बुधवार के दिन हुआ था भारत में पीपाजी का सबसे बड़ा मंदिर समदडी जिला बाड़मेर, राजस्थान में हैं = |
पीपाजी महाराज का जन्म गढ़ गागरोन जिला झालावाड में विक्रम संवत १३८० शेत्र शुक्ल पूर्णिमा बुधवार के दिन हुआ था भारत में पीपाजी का सबसे बड़ा मंदिर समदडी जिला बाड़मेर, राजस्थान में हैं = |
Revision as of 12:27, 14 September 2016
संत पीपाजी
पीपाजी महाराज का जन्म गढ़ गागरोन जिला झालावाड में विक्रम संवत १३८० शेत्र शुक्ल पूर्णिमा बुधवार के दिन हुआ था भारत में पीपाजी का सबसे बड़ा मंदिर समदडी जिला बाड़मेर, राजस्थान में हैं = सतिगुरु नानक देव जी महाराज के अवतार धारण से कोई ४३ वर्ष पहले गगनौर (राजस्थान) में एक राजा हुआ, जिसका नाम पीपा था| अपने पिता की मृत्यु के बाद वह राज तख्त पर विराजमान हुआ|
वह युवा तथा सुन्दर राजकुमार था| वजीरों की दयालुता के कारण वह कुछ वासनावादी हो गया तथा उसने अच्छी से अच्छी रानी के साथ विवाह कराया| इस तरह उसकी दिलचस्पी बढ़ती गई तथा कोई बारह राजकुमारियों के साथ विवाह कर लिया| उनमें से एक रानी जिसका नाम सीता था, अत्यंत सुन्दर थी, उसकी सुन्दरता तथा उसके हाव-भाव पर राजा इतना मोहित हुआ कि दीन-दुनिया को ही भूल गया| वह उसके साथ ही प्यार करता रहता, जिधर जाता उसी को देखता रहता| वह भी राजा से अटूट प्यार करती| जहां पीपा राजा था और राजकाज के अतिरिक्त स्त्री रूप का चाहवान था, वहीं देवी दुर्गा का भी उपासक था, उसकी पूजा करता रहता| दुर्गा की पूजा के कारण अपने राजभवन में कोई साधुओं तथा भक्तों को बुला कर भजन सुनता और भोजन कराया करता था| राजभवन में ज्ञान चर्चा होती रहती| उस समय रानियां भी सुनती तथा साधू और ब्राह्मणों का बड़ा आदर करतीं, उनका सिलसिला इसी तरह चलता गया| यह सिलसिला इसीलिए था कि उसके पूर्वज ऐसा करते आ रहे थे तथा कभी भी पूजा के बिना नहीं रहते थे| उन्होंने राजभवन में मंदिर बनवा रखा था|
उस समय भारत में वैष्णवों का बहुत बोलबाला था| वह मूर्ति पूजा के साथ-साथ भक्ति भाव का उपदेश करते थे| शहर में वैष्णवों की एक मण्डली आई| राजा के सेवकों ने उनका भजन सुना तथा राजा के पास आकर प्रार्थना की-महाराज! शहर में वैष्णव भक्त आए हैं, हरि भक्ति के गीत बड़े प्रेम तथा रसीली सुर में गाते हैं|
यह सुन कर राजा ने उनके दर्शन के लिए इच्छा व्यक्त की| उसने अपनी रानियों से कहा| रानी सीता बोली, 'महाराज! इससे अच्छा और क्या हो सकता है? अवश्य चलो|'
राजा पीपा पूरी सलाह तथा तैयारी करके संत मण्डली के पास गया| उसने हाथ जोड़ कर प्रार्थना की कि 'हे भक्त जनो! आप मेरे राजमहलों में चरण डाल कर पवित्र करें| तीव्र इच्छा है कि भगवान महिमा श्रवण करें तथा भोजन भंडारा करके आपकी सेवा का लाभ प्राप्त हो| कृपा करें प्रार्थना स्वीकार करो|'
संत मण्डली के मुखी ने आगे से उत्तर दिया-'हे राजन! यदि आपकी यही इच्छा है तो ऐसा ही होगा| सारी मण्डली राज भवन में जाने को तैयार है| भंडारे तथा साधुओं के लिए आसन का प्रबन्ध करो|'
पीपा एक राजा था| उसने तो आदेश ही देना था| सेवकों को आदेश दिया| सारे प्रबन्ध हो गए| एक बहुत खुली जगह में फर्श बिछ गए तथा संत मण्डली के बैठने का योग्य प्रबन्ध किया| भोजन की तैयार भी हो गई|
संत मण्डली ने ईश्वर उपमा का यश किया| भजन गाए तो सुन कर पीपा जी बहुत प्रसन्न हुए| संत भी आनंद मंगलाचार करने लगे, पर जब संतों को पता लगा कि राजा सिर्फ मूर्ति पूजक तथा वासनावादी है तो उनको कुछ दुःख हुआ| उन्होंने राजा को हरि भक्ति की तरफ लगाना चाहा| उन्होंने परमात्मा के आगे शुद्ध हृदय से आराधना की कि राजा दुर्गा की मूर्ति की जगह उसकी महान शक्ति की पुजारी बन जाए|
देवी भक्त राजा पीपा राव
पीपा जी गगनौर के राजा थे। इनका जन्म 1483 विक्रमी में हुआ था। अपने पिता जी की मृत्यु के बाद उन्होंने उनका राज तख्त संभाला। वह युवा तथा सुन्दर राजकुमार थे। पीपा जी ने सुन्दर से सुन्दर रानी से विवाह किया और कुल 12 राजकुमारियों के साथ विवाह करवाया। राजा अपनी सबसे छोटी रानी तथा सबसे सुन्दर राजकुमारी सीता पर मोहित हुआ करते थे। वह उसके साथ इतना प्यार करते थे कि हमेशा उसकी परछाई बनकर रहते। जहाँ पीपा जी राजा थे वह राजकाज और स्त्री रूप के अतिरिक्त देवी दुर्गा के भी उपासक थे। वह कई बार भक्तों को अपने राजमहल में बुलाकर भोजन करवाया करते। उनकी रानियाँ भी भक्तों के भजन सुनती। राजा के महल में साधू और ब्राहमणों का बहुत आदर किया जाता था। उनके पूर्वज ऐसा करते थे तथा कभी भी पूजा के बिना न रहते। उन्होंने राजभवन में मंदिर बनवा रखा था।
भक्ति की और मुड़ना
एक दिन पीपा जी को पता लगा कि उनके शहर में वैष्णवों की एक मंडली आई है। राजा के भक्त ने राजा से प्रार्थना की-महाराज ! शहर में वैष्णव भक्त आए हैं,हरि भक्ति के गीत बड़े प्रेम तथा रसीले सुर में गाते हैं।
सेवकों की यह बात सुनकर राजा के मन में भक्तों के दर्शन करने की इच्छा हुई। राजा ने अपनी रानियों से सलाह की तथा संत मंडली के पास गया। वह हाथ जोड़कर बोला कि हे भक्त जनों ! आप मेरे राजमहलों में चरण डालकर उसे पवित्र करें। तीव्र इच्छा है कि भगवान महिमा श्रवण करें तथा भोजन भंडारा करके आपकी सेवा का लाभ प्राप्त हो। कृपा करके प्रार्थना स्वीकार कीजिए। पीपा जी की यह प्रार्थना संत मंडली के मुखी ने स्वीकार कर ली।
राजा ने अपने सेवकों को सारे प्रबन्ध करने का आदेश दिया। सारी तैयारी की गई। संत मंडली ने भजन गाए। भजन सुनकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ। राजा तथा उसकी रानियों ने संतों की बहुत विनम्रता से सेवा की। संतों को भी भजन सुनाकर अधिक आनन्द प्राप्त हुआ परन्तु जब उन्हें यह जानकारी हुई कि राजा मूर्ति पूजक हैं तो उनके दिल को दुख हुआ। वह संत स्वामी रामानंद के पूजारी थे। सर्वशक्तिमान परमात्मा को सर्वव्यापक तथा अमर मानते थे। भोजन खाकर उन्होंने ईश्वर से अराधना की- हे ईश्वर ! राजा का मन दुर्गा की मूर्ति पूजा की जगह उसकी महान शक्ति की और लगाएँ। प्रभु ने संतों की प्रार्थना जल्द ही स्वीकार की तथा राजा को अपना भक्त बनाने के लिए उसे नींद में स्वप्न द्वारा प्रेरित किया।
राजा को स्वप्न आना
राजा पीपा बहुत शान से अपने महल में सो रहा था। उसकी शैया मखमली थी। राजकुमारी सीता उसके साथ थी। राजा को दीन दुनिया का ज्ञान नहीं था। राजा को नींद में कुछ इस प्रकार का सपना आया कि सपने में राजा अपने बिस्तर पर सो रहा था तो उसके शीश महल के दरवाजे अपने आप खुल गए। राजा ने देखा कि एक बहुत भयानक सी सूरत उसकी तरफ बढ़ती आ रही है। राजा ने दैत्यों की सूरत के बारे में सुना हुआ था। वह सूरत कुछ इस प्रकार की ही थी।
- राजा एकदम घबरा गया और बोलने लगा: दैत्य आया ! दैत्य आया !
- वह सूरत राजा के समीप आई और कहने लगी: हे राजा ! अब से दुर्गा की पूजा न करना। यदि करोगे तो केवल मृत्यु ही नसीब होगी। यह कहकर वह सूरत वहाँ से चल दी।
- राजा भयभीत हुआ कि उसने जल्द ही रानी सीता को जगाया और कहा: हे रानी ! शीघ्र उठो। चलो ! दुर्गा के मंदिर चलें।
- सीता रानी ने हैरान होकर कहा: हे नाथ ! आधी रात को दूसरा स्नान ?
- राजा ने कहा: मेरा दिल अधिक तेजी से घड़क रहा है। अभी जाना होगा। मुझे भयानक सपना आया है।
- सीता ने कहा: ठीक है नाथ ! जैसी आपकी आज्ञा।
- राजा और उसकी रानी सीता दोनों दुर्गा के मंदिर में पहुँचे। जैसे ही राजा पीपा ने देवी की मूर्ति के आगे स्वयँ को समर्पित किया।
- तो अचानक आवाज हुई: राजा ! मेरी पूजा न करो। मैं केवल एक पत्थर हूँ। किसी भक्त की शरण में जाओं, उसकी कृपा से तुम सही मार्ग को पाओगे। मैं तुम्हारा कल्याण नहीं कर सकती (तुम्हें मूक्ति प्रदान नहीं कर सकती)। जो संत जी तुम्हारे महल में भोजन ग्रहण करने गए थे, उनके पास जाओ।
राजा और रानी देवी की ऐसे कथन सुनकर बहुत हैरान हुए तथा डर गए। वे सोचने लगे कि देवी जी की मूर्ति को पूजते हुए इतने वर्ष हो गए परन्तु ऐसा पहले कभी भी नहीं हुआ। वे दोनों देवी जी का अंतिम प्रणाम करते हुए अपने महल की तरफ वापिस चल दिए। सुबह होते ही राजा ने स्नान किया और अपने सेवक को संतों के मुखी को बुलाने का आदेश दिया। सेवक ने भक्त से जाकर कहा हे संत जी कृपा करके राजा के महल में अपने चरण डालें। राजा जी बहुत हैरान तथा उदास हैं। संत जी यह जान गए कि प्रभु की राजा पर मेहर हुई है। प्रभु ने राजा को सही मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया है। वह महल में दर्शन देने के लिए तैयार हो गए।
संत जी जब राजा के पास पहुँचे तो उसका मुख देखकर प्रसन्न हुए। परन्तु राजा बहुत उदासी की दशा में था। वह दुर्गा जी की पूजा के लिए न गया। राजा, पंडित,ब्राहम्ण तथा दुर्गा के पुजारी बार-बार बुलाने के लिए संदेश भेजते रहे। राजा ने एक न सुनी तथा उत्तर दिया कि वह देवी के सामने नहीं जा सकता। वह कहते समय राजा की आँखों में एक अनोखी चमक थी। संतों के दर्शन करते ही राजा की उदासी दूर हो गई।
- उसने हाथ जोड़कर संतों से प्रार्थना की: हे भक्त जी ! मेरा दुख दूर कीजिए। मुझे अपने गुरू के पास ले चलिए। मैं उनके दर्शन करने के लिए बहुत उतावला हूँ। मैं न ही कुछ खाने के लिए और न ही कुछ पीने के लिए इच्छुक हूँ।
- संत जी ने कहा:राजन ! धैर्य रखो, प्रभु तुम्हारे दिल को शांत करेंगे। तुम्हें केवल अपने आप के नहीं, औरों के भी दुख दूर करने होंगे तथा उन्हें शांत करना होगा। तुम्हें स्वामी जी के दर्शन अवश्य होंगे।
- राजा पीपा जी ने कहा: महाराज ! कृपा करें तथा मुझे जल्द जी दर्शन करवा दीजिए। मेरे दिल की तड़प बढ़ती ही चली जा रही है।
- संत जी ने कहा:ठीक है ! ऐसा करो, तुम काशी जाओ। वहाँ पहुँचकर रामानंद जी का आश्रम कहाँ है, पूछ लेना।
- राजा पीपाजी ने कहा:क्या आप साथ नहीं चलेंगे ?
- संत जी ने कहा:यह दर्शन अकेले ही करने होंगे।
संत जी का उपदेश सुनकर राजा ने अपने सेवकों को काशी जाने की तैयारी करने का हुक्म दिया। राजा पीपा रथ में बैठकर काशी को चल दिए।
== स्वामी रामानंद जी को मिलना ==
राजा पीपा काशी जा पहुँचे। गँगा स्नान किया और स्वामी जी के आश्रम की और बढ़े। स्वामी यह जाँचना चाहते थे कि क्या राजा पीपा वास्तव में भक्ति के मार्ग पर चल पड़ा था या नहीं।
स्वामी जी ने आश्रम के बाहर वाले दरवाजे को बंद करवा दिया तथा आज्ञा दी कि दर्शन के लिए आज्ञा लिए बिना कोई न आए। राजा पीपा जब दर्शन के लिए बढ़े तो उसने फाटक को बन्द पाया। सेवक ने कहा कि गुरू के दर्शन के लिए आज्ञा लेना आवश्यक है। राजा ने सेवक को आज्ञा प्राप्त करने के लिए अंदर भेजा। सेवक ने स्वामी जी को प्रभु की भक्ति में मग्न पाया।
- सेवक ने प्रार्थना की तो स्वामी जी ने सहज भाव से कहा: गगनौर का राजा आया है। वह अपने साथ रानियाँ, हाथी, घोड़े, धन तथा दास दासियों को लाया है। हम गरीब हैं। हमें राजाओं से क्या वास्ता ? उसे कहो हमारा राजाओं से मेल नहीं हो सकता। वह मंदिर में जाकर लीला करें।
- सेवक ने स्वामी जी का संदेश राजा पीपा जी को सुनाया तो राजा ने एकदम हुक्म दिया कि सारा सामान बाँट दो। सब हाथी, घोड़े वापिस ले जाओ। रानी सीता के सारे आभूषण भी भेज दो। यहाँ पर रानी सीता और हम केवल तीन कपड़ों में ही रहेंगे। पीपा जी ने अपने हाथों में पहना हुआ सोना भी उतार दिया तथा गरीबों में बाँट दिया। राजा ने सब कुछ दान कर दिया तथा दास-दासियों को गगनौर वापिस जाने का हुक्म दिया। स्वामी जी के दर्शन की अभिलाषा और भी बढ़ती गई। उसने फिर सेवक को भेजा।
- सेवक ने स्वामी जी को जाकर कहा: महाराज जी ! राजा पीपा आपके दर्शनों के अभिलाषी हैं। कृपा करके उनकी इच्छा पूरी कीजिए।
- स्वामी रामानंद जी ने कहा: राजा को कहो यदि इतनी जल्दी है तो कुएँ में छलांग लगा दें।वहाँ जल्द ही परमात्मा के दर्शन हो जाएँगे। ऐसा कहकर स्वामी जी ने राजा पीपा जी की दूसरी परीक्षा लेनी चाही।
- सेवक ने जाकर यह संदेश राजा पीपा जी को दिया। पीपा जी यह सुनकर अपनी जान की परवाह न करते हुए कुएँ की और भाग उठे। रानी सीता भी दौड़ पड़ीं। जैसे ही स्वामी जी को यह मालूम हुआ कि राजा कुएँ में छलाँग लगाने जा रहा है, उन्होंने ऐसी रचना रचाई कि राजा को कुआँ ही न मिले। वह तो केवल राजा की परीक्षा लेना चाहते थे। राजा भागता गया। रास्तें में उसे स्वामी जी के शिष्य मिले।
- शिष्यों ने राजा से कहा: हे राजन ! गुरू जी ने आपको याद किया है। पीपा जी यह सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और कहने लगे कि मेरे भाग्य खुल गए जो मुझ जैसे पापी को गुरू जी ने याद किया। वह उनके शिष्यों के साथ स्वामी जी के पास पहुँचे। जैसे जी राजा को स्वामी रामानंद के दर्शन हुए वह एक दम से उनके चरण पकड़ने के लिए झुके।
- चरण पकड़ते ही उसने स्वामी जी से याचना की: हे गुरू जी !मेरा मन ईश्वर की पूजा की तरफ लगाओ।
- स्वामी जी बोले: उठो ! राम के नाम का जाप करो। केवल राम जी तुम्हारा कल्याण करेंगे। स्वामी दयावान हो गए और उन्होंने पीपा जी को हरि नाम की लग्न लगा दी और अपना आर्शीवाद देकर अपना चेला बना लिया। पीपा जी राम नाम का जाप करते हुए राम रूप होने लगे।
पीपा जी का राज भाग को त्यागना
स्वामी रामानंद जी से भक्ति का नाम दान लेकर पीपा जी अपने शहर गगनौर चले गए। पीपा जी की विदाईगी के समय स्वामी जी ने उनसे वचन लिया कि वह अपने शहर जाकर साधू-संतों की श्रद्धा से सेवा करें तथा राम नाम का जाप करें। ऐसो करने से तुम्हारी प्रजा को सुख प्राप्त होगा तथा फिर हम तुम्हारें पास आएँगे।। तुम्हें काशी आने की आवश्यकता नहीं। तुम्हारी सारी इच्छाएँ वहीं पूर्ण हो जाएँगी।
पीपा जी ने उनकी आज्ञा का पालन किया तथा अपने शहर वापिस आकर साधू-संतों की सेवा आरम्भ कर दी। राजा ने सेवा इतने उत्साह तथा प्यार से की कि उनकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैलने लगी। पीपा जी जब भक्ति के लिए बैठते तो स्वामी जी को बहुत याद करते तथा निवेदन करते कि स्वामी जी एक बार दर्शन अवश्य दें।
भक्त की इच्छा को पूर्ण करने के लिए स्वामी जी गगनौर शहर की और चल दिए। उनके साथ भक्त कबीर जी, भक्त रविदास जी और कुछ और चेले भी आए। जब पीपा जी को गुरू जी के आने की सूचना मिली कि स्वामी जी शहर से कुछ दूरी पर हैं तो वह बहुत उत्साह के साथ मिलने के लिए चल दिए। पीपा जी ने सारा प्रबन्ध किया तथा अपने साथ पालकी दास-दासियों और कुछ सेवा का सामान भी साथ ले लिया। पीपा जी ने सबसे पहले गुरूदेव को तथा सब संतों को प्रणाम किया। राजा पीपा ने रामानंद जी को प्रार्थना की, हे गुरूदेव आप पालकी में बैठकर महल में चलें। गुरू जी ने राजा की विनती को स्वीकार किया और उनके साथ पालकी में बैठकर राजभवन में चले गए। राजा ने गुरू जी की बहुत सेवा की, वस्त्र दिए तथा बहुत धन दौलत भेंट की। गुरू जी भी अधिक प्रसन्न हुए और पीपा जी को आर्शीवाद देकर निहाल किया।
स्वामी जी जब जाने लगे तो पीपा जी ने विनती की: हे महाराज जी ! आप मुझे भी अपने साथ ले चलों। मैं राजभवन त्यागकर सन्यास लेना चाहता हूँ क्योंकि राजपाट तो अहंकार तथा भय का कारण है।
स्वामी जी बोले: हे राजन ! देख लो, सन्यासी जीवन में कई प्रकार के कष्टों को सामान करना पड़ता है। अगर कष्टों का सामना करने के लिए तैयार हो तो चल पड़ो। गुरू जी ने राजा का सन्यासी होने से न रोका। पीपा जी ने अच्छे वस्त्र उतार दिए तथा एक कंबल को फाड़कर कर कफनी बनाई और गले में डाल ली। ऐसे वह राजा से फकीर बन गए।
राजा ने रानियों तथा उनकी संतान को राजभाग सौंप दिया। छोटी रानी सीता के हठ करने पर वह उसके वैरागन बनाकर साथ ले गए। लोगों के विलाप करने पर भी पीपा जी नहीं माने वह क्योंकि मन से सन्यासी होने का प्रण कर चुके थे। इसलिए वह स्वामी जी के साथ चल दिए।
पीपा जी को कृष्ण जी के दर्शन होना
तीर्थ यात्रा करते हुए साधु समाज वाले द्वारिका नगरी जा पहुँचे। वहाँ रहते हुए पीपा जी को साखी सुनाई कि श्री कृष्ण जी रूकमणी के साथ जिस द्वारिका नगरी में थे, वह नगरी जल के नीचे है। वास्तव में यह नगरी परलोक में है। कुछ दिनों के बाद स्वामी जी तो काशी वापिस चले गए। लेकिन पीपा जी तथा उनकी पत्नी द्वारिका नगरी में रहे।
एक दिन यमुना किनारे बैठे हुए उन्होंने ब्राहम्ण से पूछा: पंडित जी ! यह बताओ जिस द्वारिका नगरी में कृष्ण जी रहते हैं, वह नगरी कहाँ है ?
ब्राहम्ण ने सोचा कि यह कोई मूर्ख है जो द्वारिका नगरी में बैठे हुए पूछ रहा है कि द्वारिका नगरी कहाँ है।
ब्राहम्ण ने हंसी मजाक में कहा: द्वारिका पानी में है।
राजा पीपा जी ने सच मान लिया तथा जल में छलांग लगा दी। उनके पीछे ही उनकी पतिव्रता स्त्री ने भी छलांग लगा दी। वे दोनों ही पानी में लुप्त हो गए। देखने वाले हैरान हो गए तथा पंडित को बुरा भला कहने लगे। ब्राहम्ण को यह मालूम न था कि पीपा एक इतना भोला व्यक्ति है कि जो मेरी कही हुई बात को सच मान लेगा। दूसरी तरफ जब परमात्मा ने देखा कि भक्त और भक्तनी पानी में कुद गए हैं तो उन्होंने अपने दूतों को भेजकर कृष्ण जी के पास भेज दिया। भक्त पीपा जी कृष्ण जी के दर्शन करके निहाल हो गए। दूत उन्हें वापिस जल के बाहर छोड़ गए।
(नोट: कृष्ण जी भी परमात्मा के दास हैं, राम कृष्ण जैसे तो उस परमात्मा ने अनगिनित महापुरूष बनाएँ हैं। और वह ऐसे महापुरूषों को समय-समय पर भेजता ही रहता है। यहाँ पर बात द्वारिका नगरी में कृष्ण जी की हो रही थी इसलिए परमात्मा के दूत उन्हें कृष्ण जी के पास ले गए।)
अब लोगों ने हैरान होकर पूछा कि भक्त जी ! आप तो डूब गए थे। भक्त जी ने कहा कि हम डूबे नहीं थे, हम तो केवल कृष्ण जी के दर्शन करने गए थे, सो कर आए हैं। जब लोगों को पूरी वार्त्ता को पता लगा तो पीपा जी की महिमा सारी द्वारिका नगरी में सुगंधि की तरह फैल गई।
सीता सहचरी की रक्षा
जैसे ही यह बात फैली कि राजा तथा उनकी रानी दर्शन करके आए हैं तो लोग पीपा जी के दर्शन के इच्छुक हुए। कई लोग तो पीपा जी को प्रभु का रूप समझकर उन्हें पूजने लगे। राजा पीपा जी को यह बात पसन्द न आई। वह अपनी रानी सीता को लेकर जँगल की तरफ चल पड़े। कुछ ही दूर चलते हुए उन्हें एक पठान मिला। वह पठान बड़ा बेईमान और स्त्री रूप का शिकारी था। वह राजा पीपा जी और रानी का पीछा करने लगा। चलते-चलते रानी सीता जा को प्यास लगी। वह जल के तालाब से पानी पीने लग गई। राजा प्रभु के नाम का सुमिरन करते हुए आगे बढ़ता गया। सीता जी तथा राजा में फासला पड़ गया। पठान रानी सीता की तरफ बढ़ा और उसे उठाकर जँगल में एक तरफ ले गया।
सीता ने शीघ्र ही परमात्मा को याद किया। प्रभु हमेशा अपने भक्तों की रक्षा करते हैं। वह वहाँ शेर का रूप धारण करके आए और भक्त पीपा जी की पत्नी रानी सीता जी की इज्जत को बचा लिया। शेर ने अपने पँजों से पठान का पेट चीर दिया और पठान मर गया। शेर चला गया। इतने में प्रभु सन्यासी के रूप में सीता जी के समक्ष प्रकट हुए और कहने लगे कि बेटी सीता ! तुम्हारा पति तुम्हारा इन्तजार कर रहा है। चलो, तुम्हें उसके पास छोड़ आऊँ।
सन्यासी ने रानी सीता को राजा के पास पहुँचा दिया और आप अदृश्य हो गए। सीता को अनुभव हुआ कि प्रभु जी स्वयं अपने दर्शन दे गए। वह उसी समय राम ! राम ! सुमिरन करने लगी।
ठग साधु तथा सीता सहचरी जी
सीता सहचरी एक तो सुन्दर नवयौवना थी, दूसरा प्रभु भक्ति और पतिव्रता होने के कारण उसके रूप को और भी चार चाँद लग गए थे। जब एक नास्तिक पुरूष उसको देख लेता था तो वह लट्टू हो जाता था तथा बूरी नीयत से उसके पीछे लग जाता। एक दिन चार आवारा लड़कों ने सीता जी का सत लूटने का मन बनाया। उन्होंने साधुओं का रूप धारण कर लिया और पीपा जी के साथ घूमने लगे। एक दिन ऐसा सबब बना कि एक मंदिर में रात गुजारनी पड़ी। मंदिर में दो कमरे थे तथा आसपास घना जँगल था।
उस दिन भक्त पीपा जी ने सीता जी को एकान्त कमरे में सोने के लिए कहा तथा आप साधुओं के साथ कोठड़ी के दूसरे कमरे में सोने चले गए। शायद भक्त जी ने उन बदमाशों की परीक्षा लेनी थी, इसलिए उन्होंने सीता जी को अलग सोने के लिए कहा।
चारों बदमाशों ने योजना बनाई कि वे अकेले आधी रात साथ वाले कमरे में जाएँगे और सती सीता ता सत भँग करेंगे। आधी रात को एक पापी दबे पाँव सीता के कमरे में गया और यह सोचता रहा कि न ही पीपा को और न ही सीता को मेरे आने की खबर है और उसकी कामना पूरी होने में कोई कसर न रहेगी। आखिर सीता है तो एक स्त्री ही ना। दबे पाँव जब वह हाथ से टटोलता हुआ सीता के आसन के पास पहुँचा और सीता को जल्दी से दबाने का यत्न किया तो वह बाजू फैलाकर वहीं गिर पड़ा। तलाशने पर पता चला कि वह कोमल तन वाली सुन्दर स्त्री नहीं बल्कि लंबे बालों वाली शेरनी है। वह डर के मारे गिरता हुआ उल्टे पाँव बाहर आ गया। उसका कलेजा उसके वश में नहीं था। उसे गिरता हुआ देखकर दूसरे पापी भी बाहर चले आए और पूछने लगे कि क्या माजरा है ?
उसने उत्तर दिया: सीता का तो पता नहीं परन्तु उसके बिस्तर पर एक शेरनी लेटी हुई है। वह मुझे चीरने ही लगी थी कि पता नहीं कौन से अच्छे कर्म आगे आ गए तथा मेरे प्राण बच गए।
सबने कहा: पगला कहीं का ! सीता ही होगी। तुम्हें गलती लगी होगी कि वह शेरनी है। चलो उजाला करके देखते हैं। उजाला करने पर उन्होंने देखा कि वास्तव में वहाँ शेरनी लेटी हुई थी। उसे देखते ही चारों दौड़ गए। उन्होंने जाकर पीपा जी को जगा दिया। उनकी समाधि टूटने पर उनसे कहा कि सीता के आसन पर एक शेरनी लेटी हुई है। या तो रानी सीता कहीं चली गई है या फिर उसे शेरनी ने खा लिया है।
पापी पुरूषों की यह वार्त्ता सुनकर वह बोले: सीता तो वहीं होगी परन्तु आपका मन और आँखें अंधी हो चुकी हैं। चलो, मैं आपके साथ चलता हूँ।
भक्त पीपा जी ने साथ वाले कमरे में पहुँचकर आवाज दी: सहचरी जी !
आगे से सीता जी बोली: जी भक्त जी !
भक्त पीपा जी बोले: सहचरी जी बाहर आ जाओ। सीता जी को बाहर आया देखकर चारों पापी बहुत शर्मिन्दा हुए और सूर्य निकलने के पहले ही भाग गए। प्रभु ने सीता की रक्षा की।
भक्त पीपा जी ने रानी सीता जी से कहा: तुम्हें राजमहल लौट जाना चाहिए। कई लोग तुम्हारें यौवन पर मुग्ध हो जाते हैं तथा तुम्हें कष्ट देने का यत्न करते हैं।
यह सुनकर रानी सीता जी ने निवेदन किया: हे स्वामी ! यदि आपके साथ रहते हुए भी डर है तो बताइए मैं राजमहलों में कैसे रहूँगी ? राजमहल तो होते ही पाप का घर हैं। मैं आपको कोई कष्ट नहीं देती। रक्षा तो न आपने करनी हैं और न मैंने। हमरा रक्षक परमात्मा है। स्वामी जी, स्त्री अपने पति परमेश्वर के चरणों में ही खुश रह सकती है।
पीपा जी का धन लुटाना
सुखे आवासों को हरे करते हुए श्रीधर भक्त के घर से प्रसाद खाकर उसे अनुग्रहित करते हुए भक्त पीपा जी एक छोटी रियासत की राजधानी की ओर चले गए। शहर के बहिवर्ती भाग में एक ठाकुरद्वारा था उस ठाकुर द्वारे में डेरा डालकर बैठ गए। उस डेरे के आधे मील की दूरी पर एक सुन्दर सा तालाब था। उस तालाब में पीपा जी स्नान करने के लिए गए। सभी स्नान करके वापिस आ रहे थे कि उन्होंने देखा कि एक बेरी के निकट ताँबे की गागर पड़ी है। उसमें से सोने की मोहरें चमक रही थीं। उस गागर के पास से जब भक्त जी निकलने लगे तो उसे गागर में से आवाज आई, क्या कोई बँधन काटेगा ? मुझे यहाँ से कोई बाहर निकालेगा ? जब भक्त जी ने निकट जाकर देखा तो गागर में मोहरें थीं।
पीपा जी ने मोहरों की तरफ देखकर कहा: तू माया ! संतों की दुश्मन ! तुम यहीं बँधी रहो तो अच्छा है। यह कहकर भक्त जी आगे चले गए और सीता के पास जाकर सारी वार्त्ता सुनाई।
सीता जी ने सुनकर कहा: आप वहाँ स्नान करने मत जाया करो।
सँयोग से उसी ठाकुरद्वारें में चोरों का ठिकाना था। उन्होंने भक्त पीपा जी की सारे वार्त्तालाप को सुन लिया था। उन्होंने सोचा कि भक्त तो मोहरों का उठा न सका क्यों न हम उठा लें। अंधेरा होते ही चोर वृक्ष के पास पहुँच गए। गागर की ओर निगाह डालते ही चोरों ने देखा कि गागर में काला साँप था। वह उसे देखते ही क्रोधित हो गए।
वह कहने लगे: साधु ने झूठ बोला था।
एक चोर ने सलाह दी: यह गागर उसी साधु के पास जाकर रख देते हैं ताकि यह काला साँप उसे काट ले। झूठ बोलने का फल पाकर दूसरी दुनिया को पधार जाएगा। दूसरों ने उसके सुझाव को स्वीकार किया। चोर गागर को उठाकर साधु के पास ले गए और साधु के सिर की ओर रख गए। जब भक्त पीपा जी सुबह उठे तो उन्होंने देखा कि सोने की मोहरों से भरी गागर उनके पास पड़ी थी।
गागर में से फिर आवाज आई: मेरे बँधनों को कोई काटेगा ? डरो मत मैं संतों की दासी हूँ।
भक्त पीपा जी ने कहा: अच्छा ! दासी हो तो संतों में ही बाँट देते हैं।
भक्त पीपा जी ने भोज की योजना बनाई और उसे माया से भोज की सभी आवश्यकताओं को एकत्रित किया और तैयारी की। पाँच सौ साधुओं तथा हजारों गरीबों ने भोजन ग्रहण किया। सारी संगत को भोजन खाकर संतुष्टि हुई। खाली गागर को ठाकुरद्वारें में रख दिया गया। वह किसी कँजूस आदमी का धन था जो गागर में कैद था। माया स्वतँत्र रहे तो अच्छी रहती है। यदि इसे संभालकर रखा जाए तो पाप का मूल बनती है। == राजा सूरजमल सैन का उद्धार करना ==' पीपा जी ने जब तीन चार भंडारे किए तो उनकी शोभा बहुत फैल गई। हजारों नर नारी उनके दर्शन करने के लिए आने लगे। उस नगरी में राजा सूरजमल सैन थे, वह पीपा जी के पासा आए और दर्शन करके निहाल हो गए। पीपा जी की महिमा को देखकर वह उनसे गुरू दीक्षा लेने के लिए चाहवान हुए। उनकी प्रबल इच्छा हुई कि वह भक्त पीपा जी से दीक्षा प्राप्त करें।
राजा ने दोनों हाथ जोड़कर कहा: भक्त जी ! आप तो परमात्मा का रूप हो। आप मुझ पर भी कृपा करें। मैंने राज करते हुए अनेक पाप किए हैं। हरि का सुमिरन नहीं किया। सुमिरन किए बिना कल्याण नहीं हो सकता।
पीपा जी बोले: हे राजन ! भक्ति का मार्ग बहुत कठिन है। इन्द्रियों को सँयम में रखना पड़ता है। सारे जगत को अपना बनाना पड़ता है तथा स्वयँ को दुनिया के लिए अर्पित करना पड़ता है। राजा महाराजाओं के लिए यह मार्ग अति कठिन है। सुख, दुनियावी आराम सब अच्छे लगते हैं, प्रभु की भक्ति कड़वी है।
सूरजसैन ने कहा: भक्त जी ! कुछ भी हो, आप कृपा करें। मुझे दीक्षा अवश्य दीजिए। मैं आपका भक्त बनना चाहता हूँ।
यह सुनकर भक्त पीपा जी ने कहा: यदि तुम्हारी यही इच्छा है तो तुम इस प्रकार करो कि अपना राजमहल तथा अपनी रानी को मुझे सौंप दो। तभी तुम्हें दीक्षा मिलेगी।
यह सुनकर राजा राजमहल की तरफ बढ़ा और राजमहल की चाबियाँ और रानी को लेरक भक्त पीपा जी के चरणों में उपस्थित हुआ और मोहरों और चाबियों को भक्त पीपा जी के चरणों में रख दिया और रानी को भक्त पीपा जी के निकट ही बिठा दिया। राजा की मनोभावना को देखकर भक्त पीपा जी दयावान हो गए। उन्होंने गुरू दीक्षा दी। दीक्षा देने के पश्चात भक्त पीपा जी ने महल के खजाने की चाबी तथा मोहरें और उसकी रानी को लौटा दिया।
भक्त पीपा जी ने कहा: राजन ! आज से तुम राजा नहीं बल्कि परमात्मा को भक्त हो। अहँकार न करना, किसी के दिल को मत दुखाना, प्रभु का सुमिरन करना तथा संतों की सेवा करना। राज्य के मालिक हम हैं। अपने आपको राज्य का सेवक समझना।
यह कहकर भक्त जी ने रानी से कहा: हे पुत्री ! आज से तुम मेरी बेटी हो। प्रभु भक्ति तथा पति की सेवा करना। अपने पति को प्रोत्साहन अवश्य देना। स्त्री की सहायता के बिना पुरूष भक्तिसागर के पार सहसा नहीं जा सकता। प्रत्येक तरह से सहायता करना। किसी भी चीज का अहँकार न करना। जाओ संतों की सेवा करो तथा राम नाम का सुमिरन करो। किसी भी बात पर परेशान नहीं करना, क्योंकि स्त्री की सहायता के बिना पुरूष भक्ति के सागर में से आसानी से नहीं तैर सकता। हर तरह की सहायता करना। अहँकार मत करना, न ही राज्य का और न ही भक्ति का। जाओ संतों की सेवा करो, राम नाम का सुमिरन करो। प्रभु तुम्हारा कल्याण करेगा।
दशरथ गोयल भवरानी (pktf)